श्री भैरव देव की संपूर्ण आरती संग्रह

श्री भैरव देव की सम्पूर्ण चालीसा, आरती, अष्टक स्तोत्र, तांण्डव स्तोत्र, वरद स्तोत्र

अपने कुलदेवता, इष्ट देवता व ग्राम देवता के लिये रोज पढ़े ...

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श्री भैरव आरती

श्री भैरव देव जी आरती

जय भैरव देवा, प्रभु जय भैरव देवा ।

जय काली और गोरा देवी कृत सेवा ॥

॥ जय भैरव देवा…॥

तुम्ही पाप उद्धारक दुःख सिन्धु तारक ।

भक्तो के सुख कारक भीषण वपु धारक ॥

॥ जय भैरव देवा…॥

वाहन श्वान विराजत कर त्रिशूल धारी ।

महिमा अमित तुम्हारी जय जय भयहारी ॥

॥ जय भैरव देवा…॥

तुम बिन देवा सेवा सफल नहीं होवे ।

चौमुख दीपक दर्शन दुःख खोवे ॥

॥ जय भैरव देवा…॥

तेल चटकी दधि मिश्रित भाषावाली तेरी ।

कृपा कीजिये भैरव, करिए नहीं देरी ॥

॥ जय भैरव देवा…॥

पाँव घुँघरू बाजत अरु डमरू दम्कावत ।

बटुकनाथ बन बालक जल मन हरषावत ॥

॥ जय भैरव देवा…॥

बटुकनाथ जी की आरती जो कोई नर गावे ।

कहे धरनी धर नर मनवांछित फल पावे ॥

॥ जय भैरव देवा…॥

|| इति श्री भैरव आरती सम्पूर्णम् ||

श्री भैरव देव चालीसा व चौपाई

॥ दोहा ॥

श्री गणपति, गुरु गौरि पद, प्रेम सहित धरि माथ । चालीसा वन्दन करों, श्री शिव भैरवनाथ ॥

श्री भैरव संकट हरण, मंगल करण कृपाल । श्याम वरण विकराल वपु, लोचन लाल विशाल ॥

|| चौपाई ||

जय जय श्री काली के लाला । जयति जयति काशी-कुतवाला ॥ जयति बटुक भैरव जय हारी । जयति काल भैरव बलकारी ॥

जयति सर्व भैरव विख्याता । जयति नाथ भैरव सुखदाता ॥ भैरव रुप कियो शिव धारण । भव के भार उतारण कारण ॥

भैरव रव सुन है भय दूरी । सब विधि होय कामना पूरी ॥ शेष महेश आदि गुण गायो । काशी-कोतवाल कहलायो ॥

जटाजूट सिर चन्द्र विराजत । बाला, मुकुट, बिजायठ साजत ॥ कटि करधनी घुंघरु बाजत । दर्शन करत सकल भय भाजत ॥

जीवन दान दास को दीन्हो । कीन्हो कृपा नाथ तब चीन्हो ॥ वसि रसना बनि सारद-काली । दीन्यो वर राख्यो मम लाली ॥

धन्य धन्य भैरव भय भंजन । जय मनरंजन खल दल भंजन ॥ कर त्रिशूल डमरु शुचि कोड़ा । कृपा कटाक्ष सुयश नहिं थोड़ा ॥

जो भैरव निर्भय गुण गावत । अष्टसिद्घि नवनिधि फल पावत ॥ रुप विशाल कठिन दुख मोचन । क्रोध कराल लाल दुहुं लोचन ॥

अगणित भूत प्रेत संग डोलत । बं बं बं शिव बं बं बोतल ॥ रुद्रकाय काली के लाला । महा कालहू के हो काला ॥

बटुक नाथ हो काल गंभीरा । श्वेत, रक्त अरु श्याम शरीरा ॥ करत तीनहू रुप प्रकाशा । भरत सुभक्तन कहं शुभ आशा ॥

त्न जड़ित कंचन सिंहासन । व्याघ्र चर्म शुचि नर्म सुआनन ॥ तुमहि जाई काशिहिं जन ध्यावहिं । विश्वनाथ कहं दर्शन पावहिं ॥

जय प्रभु संहारक सुनन्द जय । जय उन्नत हर उमानन्द जय ॥ भीम त्रिलोकन स्वान साथ जय । बैजनाथ श्री जगतनाथ जय ॥

महाभीम भीषण शरीर जय । रुद्र त्र्यम्बक धीर वीर जय ॥ अश्वनाथ जय प्रेतनाथ जय । श्वानारुढ़ सयचन्द्र नाथ जय ॥

निमिष दिगम्बर चक्रनाथ जय । गहत अनाथन नाथ हाथ जय ॥ त्रेशलेश भूतेश चन्द्र जय । क्रोध वत्स अमरेश नन्द जय ॥

श्री वामन नकुलेश चण्ड जय । कृत्याऊ कीरति प्रचण्ड जय ॥ रुद्र बटुक क्रोधेश काल धर । चक्र तुण्ड दश पाणिव्याल धर ॥

करि मद पान शम्भु गुणगावत । चौंसठ योगिन संग नचावत । करत कृपा जन पर बहु ढंगा । काशी कोतवाल अड़बंगा ॥

देयं काल भैरव जब सोटा । नसै पाप मोटा से मोटा ॥ जाकर निर्मल होय शरीरा। मिटै सकल संकट भव पीरा ॥

श्री भैरव भूतों के राजा । बाधा हरत करत शुभ काजा ॥ ऐलादी के दुःख निवारयो । सदा कृपा करि काज सम्हारयो ॥

सुन्दरदास सहित अनुरागा । श्री दुर्वासा निकट प्रयागा ॥ श्री भैरव जी की जय लेख्यो । सकल कामना पूरण देख्यो ॥

॥ दोहा ॥

जय जय जय भैरव बटुक, स्वामी संकट टार । कृपा दास पर कीजिये, शंकर के अवतार ॥

जो यह चालीसा पढ़े, प्रेम सहित सत बार । उस घर सर्वानन्द हों, वैभव बड़े अपार ॥

|| इति श्री भैरव चौपाई सम्पूर्णम् ||

श्री भैरव संकट हरन मंगल करन कृपालु

करहुँ दया निज दास पे निशिदिन दीनदयालु

जय डमरूधर नयन विशाला

श्याम वर्ण वपु महा कराला

जय त्रिशूलधर जय डमरूधर

काशी कोतवाल संकटहर

जय गिरिजासुत परमकृपाला

संकटहरण हरहु भ्रमजाला

जयति बटुक भैरव भयहारी

जयति काल भैरव बलधारी

अष्टरूप तुम्हरे सब गायें

सकल एक ते एक सिवाये

शिवस्वरूप शिव के अनुगामी

गणाधीश तुम सबके स्वामी

जटाजूट पर मुकुट सुहावै

भालचन्द्र अति शोभा पावै

कटि करधनी घुँघरू बाजै

दर्शन करत सकल भय भाजै

कर त्रिशूल डमरू अति सुन्दर

मोरपंख को चंवर मनोहर

खप्पर खड्ग लिये बलवाना

रूप चतुर्भुज नाथ बखाना

वाहन श्वान सदा सुखरासी

तुम अनन्त प्रभु तुम अविनाशी

जय जय जय भैरव भय भंजन

जय कृपालु भक्तन मनरंजन

नयन विशाल लाल अति भारी

रक्तवर्ण तुम अहहु पुरारी

बं बं बं बोलत दिनराती

शिव कहँ भजहु असुर आराती

एकरूप तुम शम्भु कहाये

दूजे भैरव रूप बनाये

सेवक तुमहिं तुमहिं प्रभु स्वामी

सब जग के तुम अन्तर्यामी

रक्तवर्ण वपु अहहि तुम्हारा

श्यामवर्ण कहुं होई प्रचारा

श्वेतवर्ण पुनि कहा बखानी

तीनि वर्ण तुम्हरे गुणखानी

तीनि नयन प्रभु परम सुहावहिं

सुरनर मुनि सब ध्यान लगावहिं

व्याघ्र चर्मधर तुम जग स्वामी

प्रेतनाथ तुम पूर्ण अकामी

चक्रनाथ नकुलेश प्रचण्डा

निमिष दिगम्बर कीरति चण्डा

क्रोधवत्स भूतेश कालधर

चक्रतुण्ड दशबाहु व्यालधर

अहहिं कोटि प्रभु नाम तुम्हारे

जयत सदा मेटत दुःख भारे

चौंसठ योगिनी नाचहिं संगा

क्रोधवान तुम अति रणरंगा

भूतनाथ तुम परम पुनीता

तुम भविष्य तुम अहहू अतीता

वर्तमान तुम्हरो शुचि रूपा

कालजयी तुम परम अनूपा

ऐलादी को संकट टार्यो

साद भक्त को कारज सारयो

कालीपुत्र कहावहु नाथा

तव चरणन नावहुं नित माथा

श्री क्रोधेश कृपा विस्तारहु

दीन जानि मोहि पार उतारहु

भवसागर बूढत दिनराती

होहु कृपालु दुष्ट आराती

सेवक जानि कृपा प्रभु कीजै

मोहिं भगति अपनी अब दीजै

करहुँ सदा भैरव की सेवा

तुम समान दूजो को देवा

अश्वनाथ तुम परम मनोहर

दुष्टन कहँ प्रभु अहहु भयंकर

तम्हरो दास जहाँ जो होई

ताकहँ संकट परै न कोई

हरहु नाथ तुम जन की पीरा

तुम समान प्रभु को बलवीरा

सब अपराध क्षमा करि दीजै

दीन जानि आपुन मोहिं कीजै

जो यह पाठ करे चालीसा

तापै कृपा करहुँ जगदीशा

जो यह पाठ करे चालीसा

तापै कृपा करहुँ जगदीशा

जय भैरव जय भूतपति

जय जय जय सुखकन्द

करहुँ कृपा नित दास पे

देहुँ सदा आनन्द

|| इति श्री भैरव चालीसा सम्पूर्णम् ||

श्री काल भैरव अष्टक

श्री काल भैरव अष्टक

देवराजसेव्यमानपावनांघ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम् ।

नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगंबरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ १॥

भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकं परं नीलकण्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनम् ।

कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ २॥

शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम् ।

भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ३॥

भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोकविग्रहम् ।

विनिक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥ ४॥

धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुम् ।

स्वर्णवर्णशेषपाशशोभितांगमण्डलं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ५॥

रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं नित्यमद्वितीयमिष्टदैवतं निरंजनम् ।

मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्ट्रमोक्षणं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ६॥

अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं दृष्टिपात्तनष्टपापजालमुग्रशासनम् ।

अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ७॥

भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम् ।

नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे ॥ ८॥

॥ फल श्रुति॥

कालभैरवाष्टकं पठंति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनम् ।

शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवम् ॥

॥इति कालभैरवाष्टकम् संपूर्णम् ॥

श्री भैरव तांण्डव स्तोत्र

।। अथ भैरव तांण्डव स्तोत्र ।।

ॐ चण्डं प्रतिचण्डं करधृतदण्डं कृतरिपुखण्डं सौख्यकरम् । लोकं सुखयन्तं विलसितवन्तं प्रकटितदन्तं नृत्यकरम् ।।

डमरुध्वनिशंखं तरलवतंसं मधुरहसन्तं लोकभरम् । भज भज भूतेशं प्रकटमहेशं भैरववेषं कष्टहरम् ।।

चर्चित सिन्दूरं रणभूविदूरं दुष्टविदूरं श्रीनिकरम् । किँकिणिगणरावं त्रिभुवनपावं खर्प्परसावं पुण्यभरम् ।।

करुणामयवेशं सकलसुरेशं मुक्तशुकेशं पापहरम् । भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्री भैरववेषं कष्टहरम् ।।

कलिमल संहारं मदनविहारं फणिपतिहारं शीध्रकरम् । कलुषंशमयन्तं परिभृतसन्तं मत्तदृगृन्तं शुद्धतरम् ।।

गतिनिन्दितहेशं नरतनदेशं स्वच्छकशं सन्मुण्डकरम् । भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्रीभैरववेशं कष्टहरम् ।।

कठिन स्तनकुंभं सुकृत सुलभं कालीडिँभं खड्गधरम् । वृतभूतपिशाचं स्फुटमृदुवाचं स्निग्धसुकाचं भक्तभरम् ।।

तनुभाजितशेषं विलमसुदेशं कष्टसुरेशं प्रीतिनरम् । भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्रीभैरववेशं कष्टहरम् ।।

ललिताननचंद्रं सुमनवितन्द्रं बोधितमन्द्रं श्रेष्ठवरम् । सुखिताखिललोकं परिगतशोकं शुद्धविलोकं पुष्टिकरम् ।।

वरदाभयहारं तरलिततारं क्ष्युद्रविदारं तुष्टिकरम् । भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ।।

सकलायुधभारं विजनविहारं सुश्रविशारं भृष्टमलम् । शरणागतपालं मृगमदभालं संजितकालं स्वेष्टबलम् ।।

पदनूपूरसिंजं त्रिनयनकंजं गुणिजनरंजन कुष्टहरम् । भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्री भैरव वेषं कष्टहरम् ।।

मदयिँतुसरावं प्रकटितभावं विश्वसुभावं ज्ञानपदम् । रक्तांशुकजोषं परिकृततोषं नाशितदोषं सन्मंतिदमम् ।।

कुटिलभ्रकुटीकं ज्वरधननीकं विसरंधीकं प्रेमभरम् । भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ।।

परिर्निजतकामं विलसितवामं योगिजनाभं योगेशम् ।बहुमधपनाथं गीतसुगाथं कष्टसुनाथं वीरेशम् ।।

कलयं तमशेषं भृतजनदेशं नृत्य सुरेशं वीरेशम् ।भज भज भूतेशं प्रकट महेशं श्रीभैरववेषं कष्टहरम् ।।

।। श्री भैरव तांण्डव स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ।।

श्री कालभैरव वरद स्तोत्र

।। श्री कालभैरव वरद स्तोत्र ।।

ॐ नमो श्री गजवदना । गणराया गौरीवंदना ।।

विघ्नेशा भवभय हरणा । नमन माझे साष्टांगी ।।1।।

नंतर नमिली श्री सरस्वती । जगन्माता भगवती ।।

ब्रम्हकुमारी विणावती । वियादात्री विश्वाची ।।2।।

नमन तसे गुरुवर्या । सुखनिधान सद्गुरुराया ।।

स्मरुनी त्या पवित्र पाया । चित्तशुद्धि जाहली ।।3।।

थोर ऋषिमुनी संतजन । बुधगण आणि सज्जन ।।

करुनी तयांसी नमन । ग्रंथरचना आरंभली ।।4।।

पूर्वकाळी एकदा अगस्त्य ऋषी । भेटले कार्तिकेयस्वामींसी ।।

नमस्कार करुनी तयांसी । प्रश्न विचारु लागले ।।5।।

तेहतीस कोटी देव असती । प्रत्येक आपणच श्रेष्ठ म्हणती ।।

सामान्य माणसाची मती । गुंग होऊनी जातसे ।।6।।

गाणपत्य म्हणती गणपती । शाक्त म्हणती महाशक्ति ।।

स्मार्त म्हणती पशुपती । वैष्णव म्हणती श्रीविष्णु ।।7।।

नाना देव नाना देवता । प्रत्येकाची ज्येष्ठश्रेष्ठता ।।

आपापल्या परीने भक्ता । आकर्षुनी घेतसे ।।8।।

हा श्रेष्ठ की तो श्रेष्ठ । कोण कोणाहुनी कनिष्ठ ।।

हे न कळल्याने स्पष्ट । मन संभ्रमी पडतसे ।।9।।

कोणी म्हणती कालभैरव । हाच खरा महादेव ।।

तयाचे कृपेने सदैव । सकल कल्याण होतसे ।।10।।

कालभैरव हा देव कुठला । कसा त्याचा उद्भव झाला ।।

हें जाणण्याची मला । आतुरता फार लागली ।।11।।

तरी आता कृपा करुनी । कोणता देव श्रेष्ठ सर्वांहुनी ।।

ते मज सांगावे समजावुनी । उपकार मोठे होतील ।।12।।

तेव्हां स्कंदानीं अगस्तीसी । जी कथा सांगितली अपूर्वसी ।।

ती सांगतों सर्वासीं । म्हणे मिलिंदमाधव ।।13।।

सुमेरू पर्वतावरी एकेकाळीं । ब्रह्मादि सकळ देवमंडळी ।

चर्चा करीत होती बसली । तेव्हां काय जाहलें ।।14।।

ऋषी आणि मुनीजन । सर्वानी एकत्र जमून ।

सुमेरूवरी केलें आगमन । घेतलें दर्शन देवांचें ।।15।।

ब्रह्मदेवासी हात जोडून । त्यानी केला एक प्रश्न ।

" देवांमाजी सर्वश्रेष्ठ कोण । प्रभो आम्हां सांगावे "।।16।।

तेव्हां त्या ब्रह्मदेवाने । स्वसामर्थ्याच्या अहंकाराने ।

आणिक अतिशय अविचाराने । उत्तर दिलें झडकरी ।।17।।

मी संपूर्ण सृष्टीचा निर्माता । स्वयंभू अनादि ब्रह्म असतां ।

माझी असामान्य श्रेष्ठता । स्वयंसिध्दच आहे कीं ।।18।।

ब्रह्मदेवाची गर्वोक्ति ऐकून । क्रोधायमान झाले ऋतुनारायण ।

म्हणाले," हें आहे तुझें अज्ञान । सत्य तूं न जाणसी ।।19।।

मी विश्वाचा पालनकर्ता । मीच सृष्टीचा नियंता ।

मीच गतिशक्तीचा कर्ता । प्रत्यक्ष यज्ञस्वरूप मी ।।20।।

मी आहे परमज्योती । मीच आहे परागती ।

केलिस सृष्टिची उत्पत्ति । माझ्याच प्रेरणेने तूं ।।21।।

अर्थात तूं श्रेष्ठ नसून । मीच आहे श्रेष्ठ जाण ।

स्वतःकडे घेसी मोठेपण । काय तुला म्हणावें "।।22।।

झालें, ऐसें जुंपलें भांडण । " मीच श्रेष्ठें " म्हणती दोघेजण ।

शेवटीं " वेदांसी विचारूं आपण "। असें त्यांनीं ठरविलें ।।23।।

ऋग्वेद आणि यजुर्वेद । सामवेद आणि अथर्ववेद ।

यांच्याशीं केला वादविवाद । " श्रेष्ठ देव कोण असे ? "।।24।।

ऋग्वेद म्हणे " ज्याचे पासून । सर्वांचें होते प्रवर्तन ।

ज्यांत भूतमात्रांचा विलय जाण । तोच रुद्र श्रेष्ठ असे "।।25।।

यजुर्वेद म्हणे विचार करून । योगद्वारें होतें ज्याचें अर्चन ।

यज्ञयागांचा स्वामी स्वयंप्रमाण । शिव तो श्रेष्ठ जाणावा ।।26।।

साम म्हणे " ज्यामध्यें विश्वाचें भ्रमण । योगीजन करिती जयाचें ध्यान ।

ज्याच्या तेजें ब्रह्मांड उजळे पूर्ण । एक त्र्यंबक श्रेष्ठ तो " ।।27।।

अथर्व देई तसेच उत्तर। म्हणे " जो भक्तांचे दु:ख करी दूर।।

तोच कैवल्यरूप श्रीशंकर। श्रेष्ठ असे सवांर्हुनी " ।।28।।

वेदांचे उत्तर ऐकून । ब्रह्मा आणि नारायण ।।

दोघांनीही संतापून । निंदा केली शिवाची ।।29।।

तोंच अमूर्त प्रणव सनातन । मूर्त स्वरूप करूनी धारण ।।

म्हणे स्वयंज्योती शंकर भगवान । सर्व देवांत श्रेष्ठ असें ।।30।।

तरीही दोघांचे भांडण । संपले नाही मुळीच जाण ।।

दूर होईना त्यांचे अज्ञान । तेव्हा चमत्कार जाहला ।।31।।

दोघांच्या मध्ये एक विराट । दिव्य प्रकाशज्योत झाली प्रगट।।

त्या ज्योतीचा लखलखाट । विश्वव्यापी भासला ।।32।।

हां हां म्हणता ज्योतिर्मंडली । एक बालकाकृती दिसु लागली ।।

दिव्य तेजप्रभा आगळी । मुखावरी विलसतसे ।।33।।

वर्ण शुद्धनिलांजनासमान । त्रिनेत्र विचित्र नागभूषण ।।

त्रिशूळ वाजवी खणखण । शिवाचा अंशावतार तो ।।34।।

ज्याला बघुनी प्रत्यक्ष काळ । भयभीत होई कांपे चळचळ ।।

कालभैरव नावे सकळ । संबोधती तयाला ।।35।।

दुष्टांचे करी तो दमन । यास्तव ’ आमर्दक ’ नामाभिधान ।।

भक्तांचे पाप करी भक्षण ।। म्हणूनी पापभक्षक तो ।।36।।

’कालराज’ हेही नाव त्याचे । रक्षण करी तो काशी क्षेत्राचें ।।

पारिपत्य करुनी पाप्यांचें । शासन घोर करीतसे ।।37।।

अंगी विश्वोद्धारक शक्ति । त्रिलोकी जयाची थोर कीर्ती ।।

ऐसी पाहूनी बालमूर्ति । ब्रह्मदेव त्यासी बोलला ।।38।।

माझ्या पांचव्या मुखापासुनी । जन्म तुझा झाला म्हणोनी ।।

मला आता शरण येउनी । शुभाशिर्वाद घेई तू ।।39।।

भणाणले ब्रम्हदेवाचे मस्तक । शिवनिंदा करी पाचवे मुख ।।

ऐकुनी त्याची बकबक ।। काळभैरव क्रुद्ध जाहला।।40।।

भव्य रूप प्रगट केले । अक्राळ विक्राळ आगळे ।।

डोळे लालेलाल झाले । जळत्या निखार्‍यासारखे।।41।।

मग त्या काळभैरवानें । डाव्या करंगळीच्या नखाने ।।

ब्रह्मदेवाचे शिर छाटिले रागाने । अपराध केला म्हणोनी ।।42।।

तेव्हा त्या ब्रह्मदेवाचे डोळे । एका क्षणात चक्क उघडले ।।

आणि त्यांनी हात जोडीले । चुकलो चुकलो म्हणोनी ।।43।।

नारायणेंही तेंच केले । भैरवस्तुती स्तोत्र गाईले ।।

दोघांनाही सत्य ज्ञान झालें । प्रत्यक्ष शिव प्रगटले ।।44।।

देवांनी केली पुष्पवृष्टी । आनंदे भरली सर्व सृष्टि ।।

श्रीशंकराची दयादृष्टि । अभय देई दोघांना ।।45।।

शिव म्हणे ब्रह्मदेवाला । आणि यज्ञस्वरूपी नारायणाला ।।

मीच हा अवतार घेतला । अज्ञान दूर करायासी ।।46।।

अष्टभैरव माझे अंशावतार । काळभैरव हा सर्वाहुनी थोर ।।

त्याची तीन स्वरूपे अगोचर । जाणते तेच जाणती ।।47।।

महाकाळ,बटुकभैरव । तिसरा स्वर्णाकर्षणभैरव ।

तयावरी ठेविती भक्तीभाव । त्यांचे कल्याण होतसे ।।48।।

क्षेत्रपाल,ईशानचंडेश्वर । मृत्युंजय,मंजुघोष,अर्धनारीश्वर।

नीलकंठ,दंडपाणी,दक्षिणामूर्तिवीर । अवतार माझेच असती ते।।49।।

काळभैरवाची करतील भक्ती । त्यांची होईल कामनापूर्ती ।।

विघ्नेदु:खें दूर होती । सत्य सत्य वाचा ही ।।50।।

मग म्हणे काळभैरवासी । तूं जरी माझा अवतार अससी ।।

तरीही स्पष्ट सांगतो तुजसी । सत्य ते सत्य मानावे ।।51।।

ब्रह्मदेवाचे पाचवे मुख । माझी निंदा करी नाहक ।।

म्हणुनी फक्त तेंच मस्तक । कापिंलेस तूं कोपाने ।।52।।

क्रोधाग्नि पेटता मनी । विवेकबुद्धि भस्म होउनी ।।

घडती पापें हातुनी । अविचारी अनर्थ होतसे ।। 53।।

तू वागलास अविचाराने । तुझ्या त्या दुष्कृत्याने ।

ब्रह्महत्येच्या महापातकाने । ग्रासिले असे तुजलागी ।।54।।

ब्रम्हहत्येचे पाप अघोर । दुष्परिणाम त्याचे थोर ।।

कोणी कितीही असो बलवत्तर । पापमुक्त न होई ।।55।।

जो कोणी महापातक करी । तो तो जातो नरकपुरी ।।

अनंत युगे दु:ख भारी । भोगणे प्राप्त होतसे ।। 56।।

जेव्हा महापातकी प्राणी । मुक्त होतो नरककुंडातुनी ।।

त्याला वृक्षवेली शिळा योनी । सप्त लक्ष वर्षे लाभते ।।57।।

त्यानंतर कीड, मुंगी जीव योनी । सात हजार वर्षे कष्ट भोगुनी ।

पशुपक्षादि अनेक जन्म घेऊनी । दु:ख भोगी अपार ।।58।।

हे शिवाचे भाषण ऐकुनी । काळभैरव घाबरला मनीं ।।

म्हणे मुक्त व्हावया पापातुनी । काही उपाय सांगावा ।। 59।।

शिव म्हणे मग त्यासी । एक उपाय सांगतो तुजसी ।।

पृथ्वीवरील ती वाराणसी । अविमुक्त तें क्षेत्र असे ।।60।।

त्या क्षेत्राचे रक्षण । चण्डिका करिती रात्रंदिन ।।

त्या सर्वांचे नामाभिधान । ऐक आता सांगतो ।।61।।

दुर्गा उभी दक्षिणेला । अंतरेश्वरी नैऋत्येला ।।

अंगारेश्वरी पश्चिमेला । सुसज्ज असे सर्वदा ।। 62।।

भद्रकाली असे वायव्येला । भीमचंडी उभी उत्तरेला ।।

महामत्ता ईशान्यदिशेला । क्षेत्ररक्षण करितसे ।।63।।

उर्ध्वकेशी सहित शंकरी ।। पूर्व दिशेचे रक्षण करी ।।

अध:केशी आग्नेय कोनावरी ।। लक्ष ठेवी अखंडित ।।64।।

ऐसे ते काशीक्षेत्र जाण । भूलोकी असे पवित्र पावन ।।

तेथील पंचगंगेत करिता स्नान । पापक्षालन होतसे ।।65।।

देवदेवता, यक्ष किन्नर । नाग, सिद्ध आणि विद्याधर ।।

पिशाच्चें आणि नारीनर । होती पापमुक्त तिथें ।।66।।

त्या क्षेत्री तु जाशील जेव्हा । पापमुक्त तुही होशील तेव्हा ।।

वंद्य होऊनी सर्व देवा । सुखें तेथे राहशील ।।67।।

घ्यावयासि आतां प्रायश्चित्त । कापलेले मस्तक घे हातांत ।।

काशीला जा भिक्षा मागत । पापमुक्त व्हाया ।।68।।

ऐसे बोलुनी क्षणात । कैलासपती झाले गुप्त ।।

काळभैरव तिन्ही लोकात । भ्रमण करु लागला ।।69।।

तो पुढे पुढे चाले जरी । महापातक त्याचा पाठलाग करी ।।

येता वाराणशीच्या वेशीवरी । पाप तेथेच थांबले ।। 70।।

काळभैरव प्रवेशिता काशीक्षेत्री । हातांतील शीर पडले खालती ।।

त्या स्थळा " कपालमोचन " म्हणती । तीर्थ प्रसिद्ध झाले तें ।।71।।

काळभैरव झाला तेथील । शहराचा मुख्य कोतवाल ।।

दैवत थोर काशीतील । सर्वाहुनी ठरला श्रेष्ठ तो ।।72।।

आधीं दर्शन काळभैरवाचे । नंतर श्रीकाशीविश्वेश्वराचे ।।

ऐशापरी वागती तयांचे । सकल पाप जातसे ।।73।।

कार्तिक मास तो पवित्र । वद्य अष्टमी पवित्र फार ।।

काळभैरवाचा अवतार । शुभदिनी त्या जाहला ।।74।।

कोणतीही अष्टमी , चतुर्दशी । रविवार किंवा मंगळवार दिवशी ।।

शरण जावे काळभैरवासी । करावी पूजाप्रार्थना ।।75।।

तोतो होतो प्रसन्न ज्याला । दु:ख चिंता नसते त्याला ।।

अशुभ अमंगल जाते लयाला । सकल सिद्धी लाभती ।।76।।

होते इच्छित दीर्घायु संतती । मिळते स्थावरजंगम संपत्ती ।।

काळभैरवाचे महात्म्य किती । आणि कैसे वर्णावे ।।77।।

शत्रुभय आणि चोरभय । समूळ निश्चये नष्ट होय ।।

म्हणुनी तयाचेच पाय । धरावे भक्तिभावाने ।।78।।

वैभवशिखरीं भक्त चढे । दिनोदिनी लौकिक वाढे ।।

त्यासी पाहता काळ दडे । काळभैरवाच्या धाकाने ।।79।।

राजलक्ष्मी आणि राजमान्यता । मिळे समाजांत मानमान्यता ।।

काळभैरवाच्या सत्य भक्ता । उणे न पडे काहींही ।।80।।

स्कंदस्वामींचे भाषण ऐकुनी । समाधान पावले अगस्तीमुनी ।।

काळभैरवस्मरण करीत मनी । स्वस्थानी गेले आनंदे ।।81।।

यास्तव जोडुनी दोन्ही हस्त । म्हणावे काळभैरव वरद स्तोत्र ।।

जपावा काळभैरव मंत्र । निशिदिनी मनीं अखंड 82।।

ऐसे करील जो सहामास । काळभैरव प्रसन्न होईल त्यास ।।

देव भक्तांचा होतो दास । स्वंयसिद्ध सत्य हे ।।83।।

कोणी रंक असो वा राव । हृदयी धरुनी दृढभाव ।।

प्रार्थना करिता काळभैरव । धाउनी येई संकटी ।।84।।

सदा ठेवुनी सद्वर्तन । करिती जे काळभैरव स्मरण ।।

तयांसी साक्षात शंकर भगवान । प्रत्यक्ष दर्शन देतसे ।। 85।।

भैरवाचे कराया पूजन चिंतन । काळवेळेचे नसे बंधन ।।

स्त्रीपुरुषांनी त्यासी निशिदिन । भक्तिभावे भजावे ।।86।।

घरींदारी, कचेरीत, । वाटेत किंवा प्रवासात ।

नामस्मरण करावे अखंडित । तेणे कल्याण होतसे ।।87।।

काळभैरव होता प्रसन्न । पळते पाप आणि दैन्य ।।

मिळते विपुलधनधान्य । ऐसे सामर्थ्य तयांचे ।।88।।

अघोरीविद्या, मंत्रतंत्रशक्ती । भैरवभक्तांसी कधी न बाधती ।।

स्तोत्र हे जेथे पठण करिती । तेथें भुतेखेते न राहती ।।89।।

काळभैरवासी नित्य स्मरता । बंदिवासातुन होते मुक्तता ।।

येते हाती राजसत्ता । ऐसा समर्थ देव तो ।।90।।

ॐ असितांगभैरवाय नम:। ॐ रुरुभैरवाय नम:।।

ॐ चंडभैरवाय नम:। ॐ क्रोधभैरवाय नम:।।91।।

ॐ उन्मत्तभैरवाय नम:।ॐ कपालीभैरवाय नम:।।

ॐ भीषणभैरवाय नम:। ॐ संहारभैरवाय नमो नम:।।92।।

ॐ महाकाळा, महाकोशा। महाकाया, विश्वप्रकाशा ।।

मत्ता, महेशा, सर्वेशा । काळभैरवाय नमो नम: ।।93।।

संहाररूपा, खट्वांगधारका । कंकाळा, पापपुण्यशोधका ।।

सुराराध्या, तापहारका । काळभैरवाय नमो नम: ।।94।।

लोलाक्षा, लोकवर्धना । लोस्याप्रिया, श्वानवाहना ।।

भुतनाथा, भुतभावना । काळभैरवाय नमो नम: ।।95।।

हे श्री देवाधिदेवा । कराल वदना, काळभैरवा ।।

कृपाशिर्वाद नित्य असावा । पदीं लीन जाहला ।।96।।

कुटुंबातील सर्व व्यक्ती । त्यांसी दीर्घायुष्य, आरोग्य, शक्ति ।।

बुध्दि, किर्ती, संपत्ती । देऊनी वंश वाढवी ।।97।।

जाऊं आम्ही जेथें जेथें । कार्यसिध्दी होवो तेथें ।।

मनी कुविचार भलभलते । येऊं नको देऊं तूं ।।98।।

मिलिंदमाधव याच साठी । तुझ्या पायी घाली मिठी ।।

अपराध पापें कोटीकोटी । क्षमा त्यांची करावी ।।99।।

घरीं नांदो सतत शांतता । पडूं नये कशाची कमतरता ।।

योगक्षेमाची नसावी चिंता । हेंच देंवा मागणे ।। 100।।

शके अठराशे सत्याण्णवासी । माघमासी कृष्णपक्षीं ।।

चतुर्दशी महाशिवरात्रीसी । ग्रंथ पूर्ण झाला हा ।।101।।

श्री काळभैरवार्पणमस्तु ।। शुभं भवतु ।।

भक्तकवि मिलिंदमाधवकृत काळभैरव वरद स्तोत्र ग्रंथ संपूर्ण ।।

।। ॐ काळभैरवाय नम:।।

जपासाठी मंत्र

।। सम्पूर्णम् ।।

आप अच्छा पढ़े और अच्छा कर्म करें.

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